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सोमनाथ डनायक Somnath Danayak
Monday 12 April 2021
अखंड भारत, Akhand Bhaarat
“पहले आप पहचानो रे साधो..." "Pahale aap pahachano re saadho..."
“पहले आप पहचानो रे साधो”
दिसंबर का अंतिम सप्ताह है और ठण्ड अपने चरम पर है| संध्या का समय है और मोटे मोटे कपड़ों में सर से पैर तक छिपे हुए वर्मा जी एक थैला लिए चले आ रहे हैं| हालचाल पूँछने पर थैले में पड़ी हुयी शराब की बड़ी सी बोतल की ओर इशारा करते हुए बोले आज तो पूरी पी जाऊंगा| अपने नियंत्रण के गर्व का प्रदर्शन करते हुए मैंने उन्हें छेड़ा “मजा लेना है पीने का तो कम कम धीरे धीरे पी, चलेगा उम्र भर पीने का मौसम धीरे-धीरे पी”| पुराने खिलाड़ी वर्मा जी कहाँ कम थे, नहले पर दहला पटकते हुए बोले “आज अँगूर की बेटी से मुहौब्बत कर ले, शेख साहब की नसीहत से बग़ावत कर ले, हर नज़र अपनी बसद शौक़ गुलाबी कर दे, इतनी पी ले के ज़माने को शराबी कर दे”| ठण्ड का मौसम है और यदि आप सोच रहे हैं कि इन दूसरे वाले शायर साहब ने तो एकदम से मन की बात बोल दी है तो आप बेशक सोच सकते हैं क्योंकि सोच पर पहरा तो बैठाया नहीं जा सकता| लेकिन थोड़ा अच्छे से सोच-विचार कर लीजिए क्योंकि पहला शायर काफी गहरा प्रतीत हो रहा है और संभवत: उसने बड़ी ही चतुराई से ये पंक्तियाँ गढ़ कर, श्रोता या पाठक पर ही छोड़ दिया है कि वो किन अर्थों में इसे प्रयुक्त करेगा| यदि हम अपने सम्पूर्ण जीवन की तुलना एक मद्य-पात्र से करें तो ये पंक्तिया ज्यादा सटीक मालूम होती हैं| जीवन मद्य का एक ऐसा पात्र है जिसमे आनंद भी है और कष्ट भी| यदि हमारी सोच एवं सारे यत्न-प्रयत्न मजा-मौज और प्रदर्शन की आधुनिक जीवन-शैली तक ही सीमित हैं और एक इंसान के रूप में हम अपने दायित्वों से मुंह मोड़े हुए हैं तो जीवन रूपी इस मद्य-पात्र में से आनंद का कोटा हम शीघ्र ही समाप्त कर चुकने वाले हैं और शेष जीवन में क्या बचने वाला है कहने की आवश्यकता नहीं| जब हम सुख की चाहत में अतिवादी हो जाते हैं और इसे जीवन का एकमात्र मकसद बना लेते हैं तो एक छोटे से कष्ट के लिए भी हम अत्यधिक संवेदनशील हो जाते हैं अर्थात हम इन्हें सहन करने की शक्ति खो देते हैं| और चाहे कोई राजा हो या रंक, दुःखों का सामना तो सभी को करना है क्योंकि जीवन “सुख” और “दुःख” का एक सम्मलेन है| जीवन के इन दोनों अहम घटकों में से कोई भी कभी भी प्रवेश कर सकता है और दोनों के प्रति सहज भाव रख पाना ही शायद जीवन जीने की कला है|
आज की विडम्बना यही है कि इसी निरंकुश और स्वच्छंद जीवन की राह पर हमारा समाज तेजी से आगे बढ़ रहा है| आज हम एक ऐसे समाज की और अग्रसर हैं जिसमें जल्दी से जल्दी और येन-केन-प्रकारेण सब कुछ हासिल करने की होड़ है चाहे इसके लिए छल, बल या अन्य अनैतिक कृत्यों का सहारा ही क्यों न लेना पड़े| जैसे-जैसे हम अगली पीढ़ी की और बढ़ रहे हैं, मानवीय मूल्य और सिद्धांत की बातों को हम व्यर्थ की बकवास समझते हुए स्वच्छंदता की राह पर अग्रसर हो रहे हैं| चकाचौंध के इस दौर में अर्थ-तंत्र और मद-तंत्र आच्छादित होता जा रहा है| आज का युवा वर्ग तो एक कदम और आगे है| उसे रोक-टोक बिलकुल पसंद नहीं| मानवीय-मूल्य और सिद्धांत की बातें उसे तर्कहीन और अवैज्ञानिक प्रतीत होती हैं और हों भी क्यों न, उसे तो समय के अनुरूप आधुनिक-विज्ञान सम्मत प्रामाणिकता चाहिए|
इस अंधी होड़ के दुष्परिणाम भी दिखाई दे रहे हैं किन्तु चकाचौंध की मृगतृष्णा में हम इन्हें अनदेखा करते हुए स्वयं को नियंत्रित कर पाने में पीढ़ी दर पीढ़ी अक्षम होते जा रहे हैं| जहां आधुनिक विज्ञान एवं तकनीकी के उपयोग से हमें स्वास्थ एवं समृद्धि की ओर अग्रसर होना चाहिए वहाँ स्थिति विपरीत साबित हो रही है| डिजिटल आंकड़ों के अनुसार संक्रामक, असंक्रामक एवं आकस्मिक दुर्घटनाओं से सम्बंधित मृत्युदर में हम धरती के बेहद पिछड़े हुए देशों में आते हैं| यदि हम यह सोचकर स्वयं को तसल्ली देने का प्रयास करें कि इसके पीछे हमारी विशाल जनसंख्या है तो हमें एक तथ्य अवश्य जान लेना चाहिए कि चीन, जहां विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या है वहां मृत्युदर के ये आंकड़े हमसे बहुत कम है| जब चीन की बात आयी है तो हमें यह भी देखना चाहिए कि हम अपने बच्चों के मन-मस्तिष्क, एवं देश की अन्य आवश्यकताओं को पास रहकर भी नहीं पढ़-समझ पाते और वो हमसे दूर होकर भी हमारी आवश्यकताओं को, हमारे बच्चों के मनोविज्ञान को भाँप कर राखी, पिचकारी एवं तरह तरह के खिलौने एवं दीवाली की लाईट जैसी अनेकों प्रकार की सामग्री का सस्ता निर्माण कर पाने में न केवल सक्षम हो रहे हैं बल्कि हमें आश्रित या स्पष्ट शब्दों में गुलाम बनाते जा रहे हैं| कहीं की ईट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा की तर्ज पर विभिन्न देशों से कलपुर्जे एकत्र कर मात्र असेम्बली करते रहने की मिथ्या वैज्ञानिक प्रगति का बखान हम कब तक करते रहेंगे?
अब यदि चीन की इस बढ़ती हुयी शक्ति को समझने की कोशिश करें तो विभिन्न रिपोर्टों के माध्यम से स्पष्ट होता है कि वहाँ का प्रशासन अत्यधिक सख्त है और चीन की इस बढ़ती हुयी ताकत के पीछे श्रम-शोषण का बहुत बड़ा हाथ है| अर्थात वहाँ मानवीय संवेदनाओं को पर्याप्त वरीयता नहीं दी जाती एवं शोषण के विरोध में आवाज उठाना बेहद जोखिम से भरा होता है| इसके विपरीत हमारे देश में हम न सिर्फ कुछ भी बोल देने बल्कि कहीं भी खड़े होकर विरोध के स्वर उठाने को स्वतंत्र रहते हैं| प्रश्न उठता है कि दोनों तरीकों में कौन ज्यादा सही है? निश्चित रूप से तरक्की और ताकत के लिए मानवीय संवेदना को ताक पर रखना उचित नहीं है क्योंकि इससे तात्कालिक सफलता तो मिल सकती है किन्तु समय के साथ इस शोषण के क्रान्तिक सीमा पार कर लेने पर घातक परिणाम अवश्यम्भावी हैं|
इस दृष्टिकोण से हम भाग्यवान हैं कि हम एक बेहतर देश में हैं जहां पहले तो इस तरह के शोषण तुलनात्मक रूप से नहीं के बराबर हैं वहीं हमें बोलने एवं विरोध प्रकट करने की खुली छूट भी है| इसके साथ ही एक तथ्य भी उभर कर आता है कि क्यों हमारा समाज पथ-भ्रष्ट होने की राह पर अग्रसर है और यह तथ्य है “आजादी का दुरुपयोग”| पिछले कुछ दशकों में इस दुरुपयोग ने हमारे समाज पर इतना बुरा असर डाला है कि यह कहना बेजा नहीं होगा कि शायद हम गुलाम रहकर ही सही चल सकते हैं| बैल को यदि स्वतंत्र छोड़ दिया जाय तो वह स्वत: खेत नहीं जोतेगा बल्कि इधर उधर घूमकर अपना समय व्यतीत करेगा साथ ही एक व्यवस्थित दिनचर्या से हट जाने के कारण स्वयं को जोखिम में भी डाल लेगा| इसलिए उसे बांधकर रखने में ही उसका भी भला है और किसान का भी| अर्थात स्वतन्त्रता केवल वहाँ सार्थक है जहां विवेक है, जहां मानवीय मूल्य हैं और सिद्धांत हैं| एक ठेले या रिक्शे पर भार ढोते हुए व्यक्ति को रोककर पहले अपनी गाड़ी को निकालना मानवीयता नहीं प्रतीत होती क्योंकि वहाँ एक श्रमिक की शारीरिक मेहनत लगी हुयी है जबकि हम मशीन का उपयोग कर रहे होते हैं| ये मानवीय मूल्यों की अवहेलना का एक छोटा सा उदाहरण है और इस तरह की अनेको घटनायें आज हमारे देश में आम हो चुकी हैं|
विद्यालयीन शिक्षक जो कच्ची मिट्टी रूपी बालकों को गढ़ने का काम करते हैं, किसी राष्ट्र के निर्माण का बहुत बड़ा अंग होते हैं| आज गाँव-गाँव में स्कूल तो बन रहे हैं लेकिन शिक्षा का स्तर अति चिंतनीय है| इन शिक्षकों को अपने विषय के अतिरिक्त जहां मानवीय मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति अति संवेदनशील होना चाहिए, विवेकशील होना चाहिए, वहां इनका चयन मात्र राजनैतिक हो गया है| इस महत्वपूर्ण पद की गरिमा इस हद तक गिर चुकी है कि योग्यता के मानदंडों को ताक पर रखकर ये चयन अब परिवर्तनशील सरकारों की राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं| शेष कसर ग्राम प्रधान और जागीरदारों की स्थानीय राजनीति के द्वारा पूरी कर दी जाती है| इन गावों को जहां हमारी पुरातन तकनीकी व परम्पराओं एवं आधुनिक विज्ञान के समन्वय से विश्व के श्रेष्ठतम मॉडल के रूप में विकसित किया जा सकता था वहाँ अब इतनी विषम स्थितियां निर्मित हो चुकी हैं कि ग्रामीण शहरों की ओर पलायन करने को बाध्य हैं| आज दबंगों का साम्राज्य है जो हर ओर से अपना हित साधने में लगे हैं| उनसे कोई बैर भी नहीं लेना चाहता क्योंकि उन्हें राजनैतिक संरक्षण हासिल है | छोटे-छोटे बच्चे भी अब आधुनिक जीवन शैली की स्वच्छंद राह पर चल रहे हैं| बड़ों का सम्मान आदि बाते अब पुरानी हो चुकी हैं| आपसी भरोसा और भाईचारा अब समाप्त होता जा रहा है| ब्रिटिश लोगों ने तो केवल हिंदू और मुस्लिम के बीच फूट पैदा कर शासन करने की नीति अपनाई थी, हमारे अपने जननायकों ने तो समस्त जातियों को ही राजनीतिक समीकरणों में इस तरह उलझा दिया है कि किसी जातिविशेष-बाहुल्य क्षेत्र में दूसरी जाति के किसी अल्पसंख्यक का टिक पाना आसान नहीं| आज न्याय पाना इतना कठिन है कि व्यक्ति की मेहनत का अधिकाँश पैसा न्याय पाने की आस में आधुनिक न्याय व्यवस्था के आधार-स्तम्भ, वकीलों की भेंट चढ़ता जाता है| सुचारु न्याय-व्यवस्था देश की रीढ़ कही जा सकती है जिसके प्रमुख किरदार होते हैं वकील| नैतिक दृष्टिकोण से यह पद अति विशिष्ट है जिसे शिक्षकों की भांति ही मानवीय मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति संवेदनशील होने के साथ साथ बुद्धिमान एवं न्यायप्रिय होना चाहिए किन्तु वास्तविकता इसके विपरीत ही है| ऐसे वकीलों की संख्या बहुत कम है जिन्होंने निष्ठा-पूर्वक इस क्षेत्र में कदम रखा हो| अधिकाँश तो रोजगारपरक मजबूरी के चलते इस क्षेत्र में आ जाते हैं| आज देश में इस तरह के वकीलों की भरमार है जो न्याय दिलाने के नाम पर न्याय व्यवस्था को और उलझा रहे हैं| यदि हम अपनी पुरातन न्याय प्रक्रिया से इसकी तुलना करें तो पाते हैं कि उस समय भले ही बड़े बड़े कानूनी ग्रन्थ नहीं थे, किन्तु वो आधुनिक न्यायिक व्यवस्था से ज्यादा कारगर थी क्योंकि इसके पीछे नैतिक मूल्य और सिद्धांत थे| न्याय करते समय पंच अपने अंदर समाये हुए मानव को देख पाने में सक्षम था| आधुनिक न्याय व्यस्था के ग्रन्थ तो मोटे-मोटे हैं जिनका अध्ययन एवं उत्तीर्ण कर दंडनायक तो उत्पन्न होते हैं लेकिन न्यायप्रियता का भाव बेहद फीका नजर आता है| कुछ बड़े न्यायालयों को छोड़ दें तो देश के अधिकाँश न्यायालय स्वयं भ्रष्टाचार का शिकार हो चुके हैं जहां पचीसों वर्षों तक निर्णय का इंतज़ार इन्हें न्याय की नहीं, बल्कि अन्याय की आस लिए व्यक्तियों के लिए ज्यादा मुनासिब बनाता है|
आज भारत में इसरो जैसे कुछ एक विकल्पों को छोड़कर अन्य सभी विभागों की गति चिंतनीय है | यहां उत्साह एवं इच्छाशक्ति की अत्यधिक कमी दिखाई पड़ती है| भ्रष्टाचार का स्तर इतना बढ़ चुका है कि नियम-क़ानून इसके आगे दम तोड़ते नजर आते हैं| प्रशासनिक व्यवस्था इतनी लचर हो चुकी है कि विकसित देशों में बैन हो चुकी वस्तुएं, दवाईया आदि एक बार हमारे देश में मार्केट बना लेने पर फिर कभी बंद नहीं हो पाती| ड्रग, खनन, बिल्डिंग इत्यादि माफियाओं ने ऐसी धौंस जमा रखी है कि बड़े से बड़े स्तर के चंद ईमानदार अधिकारी भी इन पर हाथ डालने से कतराते हैं या फिर दबा दिए जाते हैं| शहरों की प्लानिंग जो कम से कम 100 वर्षों तक अग्रिम होनी चाहिए ऐसी चरमराई हुयी है कि रोज गड्ढे खोदकर पाइप-लाइन ठीक की जाती है| जहां विकसित देशों के लोग आज बढ़ते प्रदूषण और समाप्त होते जीवाश्म ईंधन से चिंतित होकर पैडल-सायकल चलाने में गर्व महसूस करते है वहीं हम बड़ी से बड़ी गाड़ी खरीद कर प्रदर्शन करने में गर्व महसूस करते हैं| आज अव्यवस्थित यातायात, चौतरफा जाम, दुर्घटनाएं, बढ़ते प्रदूषण एवं इससे उत्पन्न बीमारियों के रूप में भयावह परिणाम हमारे सामने हैं| अधिकाँश मामलों में हम आधुनिक-विज्ञान का लाभ बहुत कम ले पा रहे हैं, इसका दुरुपयोग कर हानि ज्यादा उठा रहे हैं| इससे देश के चंद लोगों को तो लाभ हो सकता है किन्तु एक बहुत बड़े वर्ग का अहित है| हम आज पाकिस्तान, बांग्लादेश या नाइजीरिया जैसे कुछ दक्षिण-अफ्रीका के देशों की तुलना में थोड़े-बहुत उन्नत तो हो सकते हैं किन्तु विकसित देशों की तुलना में अत्यंत पीछे जा चुके हैं| भारतीय मुद्रा का तेजी से हुआ अवमूल्यन इसका सीधा सा प्रमाण है| सन 1917 में 1 रुपया 13 अमेरिकन डालर के समकक्ष था जबकि आज 2017 में 1 अमेरिकन डालर 64 रुपये के समकक्ष हो चुका है|
इन विषम परिस्थितियों के मध्य यदि हमें स्वयं को उबारना है, पुन: एक श्रेष्ट भारतीय समाज की ओर जाना है तो अपनी इन कमजोरियों का अवलोकन करना ही होगा| इस तथ्य को हमेशा ध्यान रखना होगा कि स्वतन्त्रता विवेकशील समाज के लिए ही सारगर्भित है विवेकहीन समाज के लिए नहीं| विवेकहीन समाज को स्वतंत्र कर देने पर वह अपना अहित ही करेगा| हमें अपने अन्दर के इंसान को जगाना होगा एवं मिली हुयी स्वतन्त्रता का सम्मान करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में इसका दुरुपयोग रोकना होगा| सर्वाधिक आवश्यकता इस बात की है कि हम मानवीय मूल्यों और सिद्धांतों को पहचानें, जिनकी हम लगातार उपेक्षा कर रहे हैं| जापान जैसे देशों से हमें सीखना चाहिए जिन्होंने विषम स्थितियों से स्वयं को न सिर्फ उबार लिया बल्कि आज विकसित देशों में शुमार है| जहाँ हमारी मुद्रा का लगातार अवमूल्यन हुआ वहीं जापान के युआन ने बढ़त हासिल की| आज जापान विभिन्न देशों को “शिंका लीन मैनेजमेंट” जैसी गुणवत्ता एवं सम्बन्ध आधारित ट्रेनिंग प्रदान करता है और वास्तव में जिन मूल्य और सिद्धांतो की बातें इसमें बतायी जाती हैं वे दरअसल हमारे प्राचीन ग्रंथों पर आधारित हैं| कहने का आशय यह है कि हम अपने जिस आध्यात्मिक दर्शन को सिरे से नकार देते हैं वहां तमाम विज्ञान-परक बातें छिपी हुयी हैं| और एक बार पुन: इस वैदिक ज्ञान पर विवेकपूर्ण दृष्टि डालने की आवश्यकता है| यह न केवल गणितीय विज्ञान, भाषा विज्ञान, भौतिक विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान, जीव विज्ञान, धातु विज्ञान एवं आयुर्वेद के रूप में स्वास्थ विज्ञान का आधार स्तम्भ है बल्कि समाज विज्ञान, मनोविज्ञान एवं जीवन को खुशहाल रखने आदि के विज्ञान को भी समाहित करता है| धैर्य, क्षमा, आत्मनियंत्रण, संतोष, सत्यनिष्ठा, मानवीय मूल्य एवं सिद्धांत इत्यादि जिन बातों को आज हम कचरा समझ कर दूर कर दे रहे है, वास्तव में एक स्वस्थ, प्रसन्नचित्त एवं शक्तिशाली समाज की स्थापना करने वाला परम विज्ञान ही है जिस तक आधुनिक विज्ञान को पंहुचने में अभी काफी समय लगेगा| इसके कुछ एक सूत्रों को ही पकड़कर आज विकसित राष्ट्र अपने लक्ष्य तक पंहुच सके हैं|
इस पुरातन विज्ञान को हम आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर परखने के लिए कुछ उदाहरण ले सकते हैं| तुलसीदास जी द्वारा रचित इस चौपाई “युग सहस्त्र योजन पर भानु, लील्यो ताहि मधुर फल जानि” का अर्थ है कि ~ 15 करोड़ किलोमीटर दूर स्थित सूर्य (युग =12000, सहस्त्र =1000 एवं योजन 13 किलोमीटर) को हनुमान जी ने मीठा फल जानकर निगल लिया| नासा के द्वारा बतायी गयी पृथ्वी और सूर्य के मध्य की दूरी भी इतनी ही है| 1 योजन की दूरी को आप स्वयं आधुनिक पैमाने में परिवर्तित कर सकते हैं जिसके लिए पुराणों पर आधारित चित्र इस लेख में दिया गया है| यह 13.5 किलोमीटर के लगभग आती है| तुलसी दास जी बहुत पुराने नहीं हैं| वे मात्र 600 वर्ष पूर्व हुए हैं| यहाँ उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अपनी रामायण में उन्होंने वेदों एवं पुराणों से ही सामग्री जुटाई थी जो इतने पुरातन है कि इनका काल निर्धारण भी असंभव है| पहले श्रुति से आया वैदिक साहित्य/विज्ञान आगे चलकर महर्षि वेदव्यास आदि के द्वारा लिखा गया| एक बार को आप इसे कपोल कल्पित समझ सकते हैं किन्तु यदि आप सत्यता को परखना चाहें तो विष्णु पुराण खोल सकते हैं जिसके द्वितीय अंश के अध्याय सप्तम के कुछ प्रारंभिक श्लोकों से आपकी शंका तत्काल दूर हो जायेगी| विष्णु पुराण के ही प्रथम अंश के षष्टम अध्याय में दूरी मापन की सबसे छोटी इकाई परमाणु से लेकर सबसे बड़ी इकाई योजन तक का वर्णन मिलता है, जो न सिर्फ रोमांचित करने वाला है बल्कि इसके समुचित अध्ययन के लिए प्रेरित भी करता है (चित्र देखें)| नैनो से लेकर खगोलीय दूरी मापन के क्षेत्र में जहां आधुनिक विज्ञान आज पंहुचा है वहीं वैदिक विज्ञान हमें इससे भी आगे ले जाता है|
एक दूसरे उदाहरण के रूप में हम आयुर्वेद की एक सर्वत्र-सुलभ औषधि “भूमि-आमला” को ले लेते हैं| इसका लैटिन नाम फिलैंथस-निरूरी है| इसे आयुर्वेद के श्लोकों में लीवर-रोगों की एक प्रमुख औषधि बताया गया है| यह एक ऐसा पौधा है जो सम्पूर्ण भारत में मई से नवंबर तक बहुतायत में होता है| पौधा 1-1.5 फिट तक लंबा होता है जिसके इमली के सामान पत्तों के नीचे की ओर छोटे छोटे आमलों के समान बीज होते हैं| 15-16 यूनिट तक बढे हुए बिलरुबिन के स्तर को जहां व्यक्ति मरणासन्न हो चुका होता है, यह एक सप्ताह में ही सामान्य कर देता है| आज विश्व के अधिकाँश व्यक्ति हैपेटाईटिस-बी के संक्रमण के कारण जान गँवा रहे हैं| इसका आधुनिक इलाज एवं टेस्ट इतने मंहगे है कि भारत के आधिकांश व्यक्ति इसके चक्कर में अपना सब कुछ लुटा देते हैं| भूमि आमला इसका भी एक अत्यंत कारगर इलाज है| लेकिन एक बहुत बड़ी आबादी इन बातों से अनजान है| आपको सुखद आश्चर्य के लिए बता दें कि हैपेटाईटिस बी के वायरस को खोजने एवं नोबल प्राइज़ जीतने वाले जर्मनी के डा. बी. एस. ब्लमबर्ग ने स्वयं इस भूमि-आमला के द्वारा अपने रोगियों पर परीक्षण कर बड़ी सफलता प्राप्त की है| तसल्ली करने हेतु आप इस कार्य से सम्बंधित एक रिसर्च पेपर जिसमें उन्होंने भारतीय वैज्ञानिकों के साथ मिलकर काम किया है देख सकते हैं (Thyagarajan, S.P., et al. "Effect of Phyllanthus amarus on Chronic Carriers of Hepatitis B Virus." The Lancet. Oct. 1988 2:764-766.) |
उपरोक्त उदाहरण वैदिक विज्ञान जिसमे ब्रम्हांड के तमाम रहस्य समाये हुए हैं, के सागर में छिपी हुयी चंद बूंदों के समान है| | किन्तु देव-भाषा संस्कृत से विभिन्न भाषाओं में हुए इसके अनुवाद में विभिन्न त्रुटियाँ होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता| अच्छा होगा कि देश के बुद्धजीवी लोग एवं तमाम वैज्ञानिक इसे इसकी ही भाषा संस्कृत के माध्यम से एवं एक नए वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ पुन: समझने का प्रयत्न करें| संस्कृत, जिसकी वैज्ञानिकता को आज सारा विश्व समझ चुका है एवं सीखने के प्रयास कर रहा है उसे सम्पूर्ण भारत की भाषा बनाने के प्रयास किये जाने चाहिए जो वैदिक विज्ञान के इस गूढ़ रहस्य को समझने के लिए आगामी पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त करेंगे|
आज हम परिवर्तन के एक बड़े दौर से गुजर रहे हैं जिसने हमारे समाज को व्यापक रूप से प्रभावित किया है| परिवर्तन के दौर को रोका भी नहीं जा सकता क्योंकि वैदिक नियमों के अनुसार परिवर्तन ही संसार का नियम है| यद्यपि समाज का एक बड़ा वर्ग इस परिवर्तन का घोर विरोधी भी दिखाई देता है और कुछ अतिवादी लोग समय समय पर इसे रोकने के नाकाम प्रयत्न भी करते रहते हैं| उनका ये निरर्थक कार्य सारगर्भित हो सकेगा यदि वे शक्ति प्रदर्शन के स्थान पर आध्यात्म के इस परम विज्ञान को आधुनिक विज्ञान सम्मत एवं तार्किक विवेचना के आधार पर युवा वर्ग को प्रेषित करें| कलयुग के इस दौर को बदलना तो संभव नही है किन्तु इन प्रयासों के माध्यम से एक छोटे से वर्ग को ही सही एक दिशा तो दी जा सकती है| हमारे पुरातन वैदिक विज्ञान में छिपे गूढ़ रहस्यों को पुन: समझने प्रयास करने के स्थान पर यदि हम इसका उपयोग मात्र आर्थिक, अंध-विश्वास परक या फिर राजनीतिक हित साधने हेतु करते रहेंगे तो बहुत संभव है कि कुछ कर्मण्य एवं विकसित राष्ट्र इस दिशा में भी आगे बढ़ जाएँ और हम हमेशा की भांति लकीर पीटते रहें कि ये तो हमारे देश का ज्ञान है|
महर्षि पराशर द्वारा प्रणीत एवं अट्ठारह पुराणों में अत्यंत प्राचीन विष्णु पुराण बहुत ही वृहद है जिसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के आदि कारण भगवान विष्णु, आकाश, समुद्र, सूर्य आदि का परिमाण, ज्योतिष, काल-गणनाओं, भूगोल, कर्मकांड, कृषि, सागरों, लोकों के वर्णन इत्यादि के साथ साथ स्वस्थ एवं सुखमय जीवन और शक्तिसंपन्न समाज के निर्माण हेतु बहुत उपयोगी जानकारी उपलब्ध है| यदि हम कुछ ज्यादा न कर के जीवन जीने के कुछ-एक वैदिक मानदंडों को ही अपना लें तो एक नए एवं उन्नत समाज की स्थापना कर सकते हैं और आधुनिक विज्ञान के सदुपयोग के साथ-साथ विश्व को एक नयी दिशा दे सकते हैं|
आज हमने अपनी कर्मण्यता के द्वारा इसरो जैसे उपक्रम को एक मुकाम पर पंहुचाया है| हमारे प्रतिभावान छात्र विकसित देशों में जाकर बेहतर काम करते हैं | आज प्रतिभा पलायन को रोकने के उचित प्रयासों के साथ साथ उन्हें देश में ही स्वस्थ, अनुकूल, पारदर्शी, कानूनी पेचीदगियों से रहित एवं मानवीय मूल्यों से युक्त वातावरण प्रदान करने की आवश्यकता है| चयन प्रक्रियाओं को आधुनिक तकनीकी के माध्यम से पारदर्शी बनाए जाने की आवश्यकता है ताकि सुयोग्य अभ्यर्थियों का चयन सुनिश्चित किया जा सके| तमाम लूट-खसोट के एनजीओ के स्थानों पर ऐसे सेवा संस्थानों की आवश्यकता है जो मानवीय मूल्य एवं सिद्धांतों की वैज्ञानिकता को ईमानदारी के साथ प्रेषित कर सकें|
जिंदगी बहुत छोटी है| उसमें भी हम तमाम छल और प्रपंचों के जरिये अंत में कठिनाइयों के अलावा और कुछ नहीं हासिल कर सकते| इन प्रपंचों में ज्यादा उलझने की अपेक्षा अपने काम के सच्चे निर्वहन के साथ उसे ईश्वर को अर्पण कर देना ही ज्यादा सुखदायी है| एक छोटा बच्चा अपने लिए दिमाग नहीं लगाता फिर भी उसका ध्यान रखने के लिए कोई न कोई हमेशा होता है| हमारा जीवन भी इस छोटे बच्चे की तरह ही होना चाहिए कि जो कार्य ईश्वर ने सौंपा है उसे यत्नपूर्वक करते रहें और शेष उस पर ही छोड़ दें| वो हमारी सहायता करता रहेगा| यदि हम छल प्रपंच का उपयोग करना प्रारम्भ करेंगे तो उसकी दृष्टि में हम बड़े हो जायेंगे और वो हमें हमारे हाल पर ही छोड़ देगा| आइये अपने मन का वो काम करें जो हमनें अपने प्रयत्नों से पाया है| ईमानदारी और मेहनत से काम करें और देखें कि पिता या अन्य किसी के द्वारा दिलाई गयी नौकरी से ज्यादा आनंद आता है या नहीं| आइये अपने अन्दर के इंसान को खोजें जिसे समय काटने में नहीं, हमेशा कुछ करने में ही आनंद आता है| आइये सफलता की सोच से दूर कार्य करने में आनंद लेना सीखें क्योंकि आनंद सफलता के मार्ग में ही है| सफल होने के बाद तो शिथिलता होती है| आइये बच्चे बनकर सीखें क्योंकि यदि अपने को बड़ा मान बैठे तो सीखना भी बंद हो जाएगा और मन से भी वृद्ध हो जायेंगे|
आज निंदा रस समय व्यतीत करने का एक बड़ा साधन बन गया है| ऐ, बी, सी, डी और ई के समूह में जो नहीं होता वही निंदा का पात्र बन जाता है| जो उपस्थित होते हैं उन्हें कभी इस बात का एहसास नहीं होता कि उनकी अनुपस्थिति में उनका भी यही हाल होने वाला है| इसमें आनंद तो है लेकिन अच्छा है कि इसे सीमाबद्ध किया जाए और शेष समय किसी अच्छी परिचर्चा में बिताया जाए जो हमारे इंसान होने की सार्थकता को सिद्ध करेगा साथ ही कुछ ज्ञान भी देगा| वैसे ज्यादा सार्थक तो यह है कि हम दूसरों की कमियों को देखने के स्थान पर स्वयं की कमियों की पहचान करते हुए उन्हें धीरे धीरे दूर करने का प्रयास करें, जो एक उत्तम समाज की रचना के लिए अत्यधिक उपयोगी है|
समय-समय पर विभिन्न अवतारों, तपस्वियों ने आकर बड़े ही कम शब्दों में सार्थक बातें कह दी हैं| आइये आपको ले चलते हैं मध्य प्रदेश स्थित एक छोटी सी नगरी पन्ना, जो हीरे की खानों एवं टाइगर रिजर्व के लिए तो प्रसिद्ध है ही,साथ ही साथ यहाँ के प्राचीन मंदिरों की भव्यता अविस्मरणीय है| इन्ही मंदिरों में से एक है स्वामी प्राणनाथ जी का मंदिर| जब आप मंदिर के प्रांगण में स्थित होते हैं तो इसकी मन्त्रमुग्ध करने वाली भव्यता के बीच ही आपको सुनाई देते हैं भगवान श्रीकृष्ण के भजन| और इन भजनों के मध्य सुनायी देता है एक ऐसा भजन जिसकी स्वर लहरी में मानो ईश्वर स्वयं इस प्रांगण में अवतरित हो जाते हैं| यह भजन, जिसकी शीर्षक पंक्ति है “पहले आप पहचानो रे साधो” स्वयं स्वामी प्राणनाथ जी द्वारा रचित है| वास्तव में एक उत्कृष्ट जीवन जीने की सम्पूर्ण कला को व्यक्त करता यह छोटा सा वाक्य आज के परिवेश में अत्यंत प्रासंगिक है| जहां इसका एक सरल एवं सुस्पष्ट आशय है कि दूसरों के अवगुणों, खामियों, विकारों को देखने में समय व्यतीत न करते हुये स्वयं का ही विश्लेषण कर आत्म-सुधार क्यों न कर लिया जाए वहीं दूसरा गूढ़ अर्थ हमें यह बोध कराता है कि हम जानवर नहीं मनुष्य हैं और स्वयं को पहचानने की आवश्यकता है| जब हम अपने अंदर छिपे हुए मानव को पहचानने में सफल होंगे तभी समाज और देश को स्वस्थ, प्रसन्नचित्त एवं शक्तिशाली बना सकेंगे|
आईआईटी कानपुर की हिन्दी पत्रिका "अंतस" के पृष्ट क्रमांक 11 पर पढ़ें ...